नीति
- Suresh Gorana
- Sep 8, 2022
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उचित समय और उचित स्थान पर उचित कार्य करने की कला को नीति (Policy) कहते हैं। आज के समय में हर कोई ईस कला को पाना चाहता है। यदि आपके पास यह कला हैं तो आपको जीवन में सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। इसके कारण ही आप अपने जीवन की किसी भी कठनाई का डटकर सामना कर सकते हैं।
नीति विषयक कुछ बिखरे मोती यहॉं संग्रहित कर रहा हूँ जिसे पढ़कर आपको बनाये गए सिध्धांतों पर चलने में आसानी होगी।
विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् । पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ।।
अर्थात्
विद्या यानि ज्ञान हमें विनम्रता प्रादान करता है, विनम्रता से योग्यता आती है और योग्यता से हमें धन प्राप्त होता है जिससे हम धर्म के कार्य करते हैं और हमे सुख शांति मिलती है।
उध्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।
अर्थात्
कोई भी काम कड़ी मेहनत से ही पूरा होता है सिर्फ सोचने भर से नहीं| कभी भी सोते हुए शेर के मुंह में हिरण खुद नहीं आ जाता।
काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमतां । व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ।।
अर्थात्
बुध्धिमान लोग काव्य-शास्त्र का अध्ययन करने में अपना समय व्यतीत करते हैं, जबकि मूर्ख लोग निद्रा, कलह और बुरी आदतों में अपना समय बिताते हैं।
न विना परवादेन रमते दुर्जनोजन: । काक:सर्वरसान भुक्ते विनामध्यम न तृप्यति ।।
अर्थात्
लोगों की निंदा किये बिना दुष्ट व्यक्तियों को आनंद नहीं आता। जैसे कौवा सब रसों का भोग करता है परंतु गंदगी के बिना उसकी तृप्ति नहीं होती।
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।
अर्थात्
यह मेरा है; यह उसका है, ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है। इसके विपरीत उदारचरित्र वाले लोगो के लिए तो यह समग्र धरती ही एक परिवार समान है।
अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम् । अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतः सुखम् ।।
अर्थात्
आलसी को विद्या कहाँ, अनपढ़/मूर्ख को धन कहाँ, निर्धन को मित्र कहाँ और अमित्र को सुख कहाँ।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः । नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
अर्थात्
मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही (उनका) सबसे बड़ा शत्रु होता है। परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा) कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुःखी नहीं होता।
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः । श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ।।
अर्थात्
जो व्यक्ति धर्म (कर्तव्य) से विमुख होता है वह (व्यक्ति) बलवान् हो कर भी असमर्थ, धनवान् हो कर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है।
नादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम । पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च ।।
अर्थात्
अपमान करके दान देना, विलंब से देना, मुख फेर के देना, कठोर वचन बोलना और देने के बाद पश्चाताप करनाः ये पांच क्रियाएं दान को दूषित कर देती हैं।
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन, दानेन पाणिर्न तु कंकणेन, विभाति कायः करुणापराणां, परोपकारैर्न तु चन्दनेन ।।
अर्थात्
कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है। हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणों से। दयालु/सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है।
पृथ्वियां त्रीणि रत्नानि जलमन्नम सुभाषितं । मूढ़े: पाधानखंडेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ।।
अर्थात्
पृथ्वी पर तीन रत्न हैं- जल,अन्न और शुभ वाणी । पर मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़ों को रत्न की संज्ञा देते हैं।
न कश्चित कस्यचित मित्रं,
न कश्चित कस्यचित रिपु: व्यवहारेण जायन्ते मित्राणि रिप्वस्तथा ।।
अर्थात्
न कोई किसी का मित्र होता है, न कोई किसी का शत्रु। व्यवहार से ही मित्र या शत्रु बनते हैं।
जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं, मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं, सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ।।
अर्थात्
अच्छे मित्रों का साथ बुद्धि की जड़ता को हर लेता है, वाणी में सत्य का संचार करता है, मान और उन्नति को बढ़ाता है और पाप से मुक्त करता है। चित्त को प्रसन्न करता है और (हमारी) कीर्ति को सभी दिशाओं में फैलाता है। (आपही) कहें कि सत्संगतिः मनुष्यों का कौन सा भला नहीं करती?
प्रदोषे दीपक: चन्द्र: प्रभाते दीपक: रवि:। त्रैलोक्ये दीपक:धर्म: सुपुत्र: कुलदीपक:।।
अर्थात्
संध्याकाल में चंद्रमा दीपक है, प्रातःकाल में सूर्य दीपक है, तीनो लोकों में धर्म दीपक है और सुपुत्र कुल का दीपक है।
सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यं प्रियम । प्रियं च नानृतं ब्रूयात एष धर्म: सनातन: ।।
अर्थात्
सत्य बोलो, प्रिय बोलो, अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिए। प्रिय लगने वाला असत्य भी नहीं बोलना चाहिए।
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